आइये सुनते हे मोहित झरिया जी के अल्फाज कलयुग का रावण

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मे दशानन्द रावण हु चलो एक बात बताओ

  • मुजे जो हर वर्ष जलाते हो इतना दोगला मन कहा से लाते हो ।
  • रावण रावण सबके अंदर फिर भी रावण जलता हे ,

मूढ़ किसे तू छलता हे

हर साल दहन जो करता तू राम हे क्या

  • किसने तुझको अधिकार दिया
  • यह दंश मुजे हर बार दिया

भगिनी के सम्मान के हेतु, हरिप्रिया का हरण किया ,

छुआ ना मेने पर स्त्री को , पावन सा ही सोप दिया

  • तू राम बनने चला हे

झाक कर देख अंदर हवस के पुतले मे ढला हे

मे सतयुग का रावण था ,सब चेहरे बाहर थे मेरे ,

तू कलयुग का मानव हे पर छुपी कुटिलता मन तेरे ।

कागज का पुतला जलता हे ,पर क्या जो तेरे अंदर पलता हे ।

  • क्या कभी उन दरिंदों को जलाया हे

कितनी सीताओ की आबरू जिन्होंने खाक मे मिलाया हे ।

क्या तू ऐसा कर सकता था खुद पर संयम रख सकता था ।

  • क्या हुआ देव नहीं दानव हु
  • कम से कम चरित्र से पावन हु ।

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